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“कोई अछूत कैसे हो सकता है?” — मानवता और समानता का मंत्र

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कवियत्री – श्रीमती मंजुला श्रीवास्तव दिल्ली

“कोई अछूत कैसे हो सकता है?” — मानवता और समानता का मंत्र

मंजुला श्रीवास्तव की यह कविता धर्म और मानवता के बीच के विरोधाभासों को चुनौती देती है। सनातन धर्म, जो कण-कण में भगवान और आत्मा में परमात्मा का दर्शन करता है, उसी के अनुयायियों के बीच जातिगत भेदभाव और अछूतपन की जड़ें गहरी क्यों हैं?

कवयित्री बड़े ही सरल शब्दों में यह सवाल उठाती हैं कि अगर ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है और हर जीव में उसका अंश है, तो कोई इंसान अछूत कैसे हो सकता है? वह यह भी पूछती हैं कि यदि किसी मंदिर से कोई व्यक्ति निराश लौटे, तो क्या वह वास्तव में मंदिर हो सकता है? और जो व्यक्ति अपने ही बनाए मानव को ठुकराए, क्या वह सचमुच भगवान हो सकता है?

कविता सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त विषमताओं और आडंबरों को उजागर करती है और एक ऐसे समाज की कल्पना करती है, जहां हर व्यक्ति को समान मानवीय गरिमा मिले। यह रचना न केवल सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की याद दिलाती है, बल्कि हमारे समाज को आत्ममंथन के लिए प्रेरित भी करती है।

मंजुला श्रीवास्तव की यह कविता एक सवाल नहीं, बल्कि एक पुकार है—समानता, न्याय और सच्चे धर्म के प्रति जागरूकता की।

कोई अछूत कैसे हो सकता है?

हम सनातनी कहते हैं
कण कण में भगवान है
फिर कैसे कोई अछूत हो सकता है?

हम सनातनी कहते हैं
ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है
फिर कैसे कोई अछूत हो सकता है ?

हम सनातनी कहते हैं
संपूर्ण विश्व एक परिवार है
फिर कैसे कोई अछूत हो सकता है?

हर जीव में आत्मा बसती है
आत्मा परमात्मा का अंश ही है
फिर कैसे कोई अछूत हो सकता है?

सनातन सत्य को जो ना माने
वह सनातनी कैसे हो सकता है?

मानव जो दूजे मानव को दुत्कारे
वह इंसान कैसे हो सकता है?

निराश जिस दर से कोई लौटे
वह मंदिर कैसे हो सकता है?

स्वयं की रचना से जो मुंह फेरे
वह भगवान कैसे हो सकता है?

कवियत्री — मंजुला श्रीवास्तव. नई दिल्ली
Poetess & CEO of TINRAD (Tulsi Immuno Nano Research and Development)

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